बी ए - एम ए >> बीए सेमेस्टर-5 पेपर-1 चित्रकला - भारतीय वास्तुकला का इतिहास बीए सेमेस्टर-5 पेपर-1 चित्रकला - भारतीय वास्तुकला का इतिहाससरल प्रश्नोत्तर समूह
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बीए सेमेस्टर-5 पेपर-1 चित्रकला - भारतीय वास्तुकला का इतिहास - सरल प्रश्नोत्तर
प्रश्न- भारत की प्राचीन स्थापत्य कला में मन्दिरों का क्या स्थान है?
सम्बन्धित लघु उत्तरीय प्रश्न
1. प्रारम्भिक मन्दिरों का वास्तु-विन्यास किससे प्रभावित था?
2. द्रविड़ शैली के विषय में कुछ पंक्तियाँ लिखिए।
उत्तर -
भारत की प्राचीन स्थापत्य कला में मन्दिरों का विशिष्ट स्थान है। भारतीय संस्कृति में मन्दिर निर्माण के पीछे यह सत्य छुपा था कि ऐसा धर्म स्थापित हो जो जनता को सहजता व व्यवहारिकता से प्राप्त हो सके। इसकी पूर्ति के लिए मन्दिर स्थापत्य का प्रार्दुभाव हुआ। इससे पूर्व भारत में बौद्ध एवं जैन धर्म द्वारा गुहा, स्तूपों एवं चैत्यों का निर्माण किया जाने लगा था। कुषाणकाल के बाद गुप्तकाल में देवताओं की पूजा के साथ ही देवालयों का निर्माण भी प्रारम्भ हुआ।
प्रारम्भिक मन्दिरों का वास्तु - विन्यास बौद्ध विहारों से प्रभावित था। इनकी छत चपटी तथा इनमें गर्भगृह होता था। मन्दिरों में रूप विधान की कल्पना की गई और कलाकारों ने मन्दिरों को साकार रूप प्रदान करने के साथ ही देहरूप में स्थापित किया। चौथी सदी में भागवत धर्म के अभ्युदय के पश्चात् (इष्टदेव) भगवान की प्रतिमा स्थापित करने की आवश्यकता प्रतीत हुई। अतएव वैष्णव मतानुयायी मन्दिर निर्माण की योजना करने लगे। साँची का दो स्तम्भयुक्त कमरे वाला मन्दिर गुप्त मन्दिर के प्रथम चरण का माना जाता है। बाद में गुप्तकाल में वृहद स्तर पर मन्दिरों का निर्माण किया गया जिनमें वैष्णव तथा शैव दोनों धर्मों के मन्दिर हैं। प्रारम्भ में ये मन्दिर सादे थे और इनमें स्तम्भ अलंकृत नहीं थे। शिखरों के स्थान पर छत सपाट होती थी तथा गर्भगृह में भगवान की प्रतिमा, ऊँची जगती आदि होते थे। गर्भगृह के समक्ष स्तम्भों पर आश्रित एक छोटा अथवा बड़ा बरामदा भी मिलने लगा। यही परम्परा बाद के कालों में प्राप्त होती है।
मन्दिर शब्दावली
शैलियाँ
भारतीय उपमहाद्वीप तथा विश्व के अन्य भागों में स्थित मन्दिर विभिन्न शैलियों में निर्मित हुए हैं। मन्दिरों की कुछ शैलियाँ निम्नलिखित हैं-
नागर शैली
नागर शैली का प्रसार हिमालय से लेकर विंध्य पर्वतमाला तक देखा जा सकता है। वास्तुशास्त्र के अनुसार नागर शैली के मन्दिरों की पहचान आधार से लेकर सर्वोच्च अंश तक इसका चतुष्कोण होना है। विकसित नागर मन्दिर में गर्भगृह, उसके समक्ष क्रमशः अन्तराल, मण्डप तथा अर्द्धमण्डप प्राप्त होते हैं। एक ही अक्ष पर एक-दूसरे से संलग्न इन भागों का निर्माण किया जाता है।
द्रविड़ शैली
यह शैली दक्षिण भारत में विकसित होने के कारण द्रविड़ शैली कहलाती है। इसमें मन्दिर का आधार भाग वर्गाकार होता है तथा गर्भगृह के ऊपर का भाग पिरामिडनुमा सीधा होता है, जिसमें अनेक मंजिलें होती हैं। इस शैली के मन्दिरों की प्रमुख विशेषता यह है कि ये काफी ऊँचे तथा विशाल प्रांगण से घिरे होते हैं। प्रांगण में छोटे-बड़े अनेक मन्दिर, कक्ष तथा जलकुण्ड होते हैं। प्रांगण का मुख्य प्रवेश द्वार 'गोपुरम्' कहलाता है। चोल काल के मन्दिर द्रविड़ शैली के सर्वश्रेष्ठ प्रमाण है।
बेसर का शाब्दिक अर्थ है मिश्रित अतएव नागर और द्रविड़ शैली के मिश्रित रूप को बेसर की संज्ञा दी गई है। यह विन्यास में द्रविड़ शैली का तथा रूप में नागर शैली का होता है। दो विभिन्न शैलियों के कारण उत्तर और दक्षिण के विस्तृत क्षेत्र के बीच सतह एक क्षेत्र बन गया जहाँ इनके मिश्रित रूप में बेसर शैली हुई इस शैली के मन्दिर विंध्य पर्वतमाला से कृष्णा नदी तक निर्मित है लेकिन कला का क्षेत्र असीम है।
पगोडा शैली
पगोडा शैली नेपाल और इण्डोनेशिया का बाली टापू में प्रचलित हिन्दू मन्दिर स्थापत्य शैली है। इस शैली में छतों का श्रृंखला अनुलम्बित रूप में एक के ऊपर दूसरा रहता है। अधिकांश गर्भगृह भूतल स्थित हैं। परन्तु कुछ मन्दिर (उदाहरण - काठमाण्डो का आकाश भैरव और भीमसेन स्थान मन्दिर) में गर्भगृह दूसरा मंजिल में स्थापित है। कुछ मन्दिरों के गर्भगृह समुचित स्थल में निर्मित होते हैं (उदाहरण - भक्तपुर का न्यातपोल मन्दिर), जो भूस्थल से करिबन 3-4 मंजिल के ऊँचाई पर स्थित हैं। इस शैली में निर्मित प्रसिद्ध मन्दिर में नेपाल का पशुपतिनाथ, बाली का पुरा बेसाकि आदि प्रमुख है।
अन्य शैलियाँ
स्तूपों के निर्माण के साथ ही हिन्दू मन्दिरों का मुक्त ढाँचों के रूप में निर्माण भी आरम्भ हो गया। हिन्दू मन्दिरों में देवताओं की विषय-वस्तु के रूप में पौराणिक कथाएँ हुआ करती थीं। मन्दिरों में प्रदक्षिणा पथ एवं प्रवेश के आधार पर तीन मन्दिर निर्माण शैलियाँ हुआ करती थीं, जिनका परिचय अग्रलिखित है-
सन्धार - इस शैली के मन्दिरों में वर्गाकार गर्भ गृह को घेरे हुए एक स्तम्भों वाली वीथिका (गैलरी) होती थी। इस वीथिका का उद्देश्य गर्भ गृह की प्रदक्षिणा था। इस प्रकार सान्धार शैली में प्रदक्षिणा पथ हुआ करता है।
निरन्धार - इस शैली के मन्दिरों में प्रदक्षिणा पथ नहीं होता है।
सर्वतोभद्र - इस शैली के मन्दिरों में चार प्रवेश द्वार होते हैं जो चारों मुख्य दिशाओं में होते हैं। इसको घेरे हुए 12 स्तम्भों वाला मुख्य दिशाओं में होते हैं। इसको घेरे हुए 12 स्तम्भों वाला प्रदक्षिणा भी होता है। इस प्रकार के मन्दिरों में सभी दिशाओं से प्रवेश मिलता है।
कुछ मन्दिरों की वास्तु
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- प्रश्न- भारत की प्राचीन स्थापत्य कला में मन्दिरों का क्या स्थान है?
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- प्रश्न- भारतीय मन्दिर वास्तुकला की प्रमुख शैलियाँ कौन-सी हैं? तथा इसके सिद्धान्त कौन-से हैं?
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